|| द्वारका: स्वर्ण की नगरी बनने से ले कर समुन्द्र तल तक मिलने की कहानी। क्यों है यहाँ समुन्द्र के तल में बैठकर तप करने का महत्व ? ||
|| द्वारका: स्वर्ण की नगरी बनने से ले कर समुन्द्र तल तक मिलने की कहानी। क्यों है यहाँ समुन्द्र के तल में बैठकर तप करने का महत्व ? ||
द्वारिका (#Dwarka ) गुजरात में स्थित हिंदुओ के सात पवित्र शहरो और चार धामों में से एक है। महाभारत और पुराणो में इसे श्री कृष्ण द्वारा निर्मित एक राज्य बताया गया है। परंपरागत रूप से, आधुनिक द्वारका की पहचान महाभारत युग में स्थित द्वारका से ही की गई है, जिसका उल्लेख महाभारत में श्री कृष्ण की नगरी के रूप में किया गया है। द्वारका एक बंदरगाह था, और कुछ विद्वानों ने इसकी पहचान बर्का द्वीप के साथ की है जो की एरिथ्रियास सागर में है। महाभारत और पुराणो की माने तो इस शहर के चारों ओर बहुत ही लंबी दीवार थी और उन दीवारों में अनेक द्वार थे। कई द्वारों का शहर होने के कारण इसका नाम द्वारिका पड़ा।
द्वारिका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, गोमती द्वारिका, ओखा-मंडल, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, उदधिमध्यस्थान, वारिदुर्ग भी कहा जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। और इसीलिए यहाँ समुन्द्र के अंदर बैठकर तपस्या करने का महत्व है।
श्रीमद् भागवतम में उल्लेख मिलता है की कंस के मृत्यु के पश्चात - कंस की दो पत्नियां, "अस्ति और प्रपत्ति", अपने पिता "जरासंध" के पास चली गईं। जरासंध को कंस के मृत्यु से बहुत क्रोध आया और उसने पृथ्वी को यदु वंशियों से मुक्त करने का निर्णय लिया। और फिर उसने युद्ध की तैयारी की। उसने अपने 23 अक्षौहिणी योद्धा सेना के साथ मथुरा को जब्त कर लिया। लेकिन कृष्ण-बलराम से हार गया था। उसके बाद उसने अगले 17 बार मथुरा पर बार-बार हमला किया,
लेकिन श्रीकृष्ण की शक्ति के कारण उसे हर बार हार मिली।
लेकिन जब 18 वीं बार यदुओं और जरासंध के बीच युद्ध शुरू होने वाला था, तो यदुओं के खिलाफ लड़ाई में जरासंध के साथ "कालयवन" भी शामिल हुआ। कालयवन 3 मुख्य विदेशी योद्धाओं को लाया और मथुरा की घेराबंदी कर दी। तो कृष्ण और बलराम ने सोचा कि इस बार हम दो बहुत मजबूत सेनाओं का सामना कर रहे हैं और अगर हम इस बार "कालयवन" से लड़ते हैं, तो "जरासंध" भी हम पर हमला करेगा और मथुरा के लोगों को मार डालेगा। इस कारण श्री कृष्ण ने द्वारिका को बसाया जो की पहले एक खंडहर था उसे एक स्वर्ण नगरी में बदल दिया।
लेकिन महाभारत युद्ध के कुछ वर्षों बाद, गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के कारण प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गया और इसलिए यह एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है।
खोए हुए शहर का पहला स्पष्ट ऐतिहासिक रिकॉर्ड 574 AD में मिला है। यह शिलालेख द्वारका को सौराष्ट्र के पश्चिमी तट की राजधानी के रूप में संदर्भित करता है और अभी भी अधिक महत्वपूर्ण है, और बताता है कि श्रीकृष्ण यहां रहते थे।
गोमती नदी और अरब सागर के किनारे आधुनिक युग में बहुत लोगों के हिसाब से केवल दो द्वारिका बसते हैं- गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका। गोमती द्वारिका धाम है, बेट द्वारिका पुरी है। बेट द्वारिका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है। आमतौर पर लोग द्वारका उस क्षेत्र को समझते हैं जहां गोमती नदी के तट पर भगवान द्वारकाधीशजी का मंदिर है। लेकिन कम लोग जानते हैं कि द्वारका को तीन भागों में बांटा गया है। मूल द्वारका, गोमती द्वारका और बेट द्वारका।
मूलद्वारका को सुदामापुरी भी कहा जाता है। यहां सुदामाजी का घर था। इसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। गोमती द्वारका वह स्थान है जहां से भगवान श्रीकृष्ण राजकाज किया करते थे और बेट द्वारका वह स्थान है जहां भगवान का निवास स्थान था।
यहां के पुजारी बताते हैं कि एक बार संपूर्ण द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई थी, लेकिन बेट द्वारका बची रही । द्वारका का यह हिस्सा एक टापू के रूप में मौजूद है।
मंदिर का अपना अन्न क्षेत्र भी है। यहां मंदिर का निर्माण 500 साल पहले महाप्रभु संत वल्लभाचार्य ने करवाया था। मंदिर में मौजूद भगवान द्वारकाधीश की प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि इसे रानी रुक्मिणी ने स्वयं तैयार किया था। यहां अनेक मंदिर और सुंदर, मनोरम और रमणीय स्थान हैं। प्राचीन काल में यहाँ और मंदिर हुआ करते थे लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने यहां के बहुत से प्राचीन मंदिर तोड़ दिए।
लेकिन सबसे ख़ूबसूरत तो द्वारकाधीश मंदिर को ही माना जाता है जो की लगभग 2,200 साल पुराना है। कृष्ण जी का यह मंदिर, तीनों लोकों में सबसे सुंदर माना जाता है। इस मंदिर को हिंदुओं का प्रमुख व महत्वपूर्ण स्थान के रुप में देखा जाता है। मंदिर में स्थापित श्री कृष्ण की द्वारकाधीश के रुप में पूजा की जाती है । मान्यताओं के अऩुसार इस मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के पोते वज्रभ द्वारा किया गया था और 15वीं-16वीं सदी में मंदिर का विस्तार हुआ था। पुरातात्व विभाग द्वारा बताया जाता है की यह मंदिर करीब 2000-2200 साल पुराना है।
जगत मंदिर के नाम से जाना जाने वाला यह द्वारकाधीश मंदिर 5 मंजिला इमारत का तथा 72 स्तंभों द्वारा स्थापित किया गया है। मंदिर का शिखर करीब 78.3 मीटर ऊंची है। मंदिर के ऊपर स्थित ध्वज सूर्य और चंद्रमा को दर्शाता है, जो कि यह संकेत मिलता है कि पृथ्वी पर सूर्य और चंद्रमा मौजूद होने तक कृष्ण होगा। झंडा दिन में 5 बार बदला जाता है, लेकिन प्रतीक एक ही रहता है।
कहते है द्वारका में कर्म के रास्ते चलते हुए अगर कोई रास्ता भटक जाए तो श्री कृष्ण स्वयं उसका हाथ पकड़ कर सही रास्ते पर ले जाते है ।
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