प्रज्ञा (परिपूर्ण अंतिम ज्ञान) कब प्राप्त होता है? ||


प्रज्ञा (परिपूर्ण अंतिम ज्ञान) कब प्राप्त होता है? ||Verse 3.6:38||
भिक्षु चित्तहत्थ स्थविर की कहानी 

एक दिन एक श्रावस्ती में रहने वाला जंगल में, अपनी खोई हुई गाय को खोजता हुआ, जेतवन के विहार पहुँच गया।सारे दिन गाय को को ढूँढते-ढूँढते गाय का मालिक बहुत थक गया और उसे भूख भी बहुत लगने लगी थी। विहार के बाहर वह सोचने लगा – "भिक्षुओं से अवश्य ही खाने के लिए कुछ मिल जायेगा" ऐसा सोचकर वह विहार के अंदर चला गया। वहाँ कुछ भोजन बचा हुआ था अतः किसी भिक्षु ने कहा, उसे एक पात्र को दिखाते हुए कहा – “इस पात्र में कुछ भोजन बचा हुआ है, उसे खाकर अपनी भूख मिटा लो" उस व्यक्ति ने भिक्षुओं के बचे हुए भोजन खा लिया। उसे भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा। उसने भिक्षुओं से पूछा इतना स्वादिष्ट भोजन कहाँ से आया? भिक्षुओं ने उसे बताया कि बौद्ध विहार में प्रतिदिन गृहस्थ उपासकों की ओर से स्वादिष्ट भोजन आता था। यह जानकर उसने सोचा, – "जिन्दगी में इतनी अधिक मेहनत करने से क्या लाभ? क्‍यों न मैं भी प्रव्रज्या धारण कर संघ में शामिल हो जाऊँ, तब बिना किसी परिश्रम के स्वादिष्ट भोजन खाने को तो मिलेगा" ऐसा सोचकर उसने भिक्षुओं से प्रवज्जित करने की प्रार्थना की।भिक्षुओं ने उसे स्वीकृति दे दी और वह प्रव्रजित हो गया। 

प्रव्रजित होने के बाद उसे गृहस्थों से बिना किसी परिश्रम के स्वादिष्ट भोजन और सत्कार मिलने लगा। खूब भोजन करने और कोई शारीरिक परिश्रम नहीं करने के कारण थोड़े ही दिनों में वह बहुत मोटा हो गया। एक दिन उसने सोचा, “रोज़-रोज़, घर-घर जाकर भिक्षाटन करना भी बेकार है क्‍यों न पुनः गृहस्थ बन जाऊँ? यह सोचकर वह संघ त्याग कर, फिर गृहस्थ बन गया। लेकिन गृहस्थ जीवन में तो शारीरिक श्रम करना पड़ता है इसलिए वह फिर से दुबला होने लगा। कम भोजन मिलने और अधिक मेहनत करने से दुखी: होकर उसे पुनः विहार की याद आने लगी। वह दोबारा भिक्षुओं से हाथ-पैर जोड़कर कहने लगा कि वे उसे पुनः प्रव्रजित कर दें। भिक्षुओं को उस पर दया आयी तो उन्होंने उसे फिर से प्रवज्जित कर दिया। गृहस्थ से प्रवज्जित और प्रवज्जित से गृहस्थ बनने का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। वह छह बार गृहस्थ से प्रवज्जित हुआ और प्रवज्जित से गृहस्थ हुआ। भिक्षुओं ने उसके अनियंत्रित चित्त को जानकर उसका नाम 'चित्तहस्त' रख दिया। चित्तहस्त के घर से विहार और विहार से घर आने-जाने के क्रम में उसकी पत्नी गर्भवती हो गई। सातवीं बार की बात है कि एक दिन जंगल से वापस आकर, यह सोचते हुए खेती के औजार घर में रखे कि चलो एक बार फिर से प्रवज्जित हो जाता हूँ अपने कमरे में प्रवेश किया जहाँ उसकी पत्नी सोई पड़ी थी। वहाँ उसने क्या देखा और क्या हुआ? 

उसने देखा कि उसकी पत्नी खाट पर सोई हुई थी। उसकी साड़ी इतनी अस्त-व्यस्त थी कि वह करीब-करीब नग्नावस्था में दिख रही थी। उसके मुँह के एक कोने से लार निकल बह रही थी। गले से घर्र-घर्र की आवाज़ और मुँह से भी खर्राटे ले रही थी। दाँत किटकिटाने की आवाज़ भी निकल रही थी। उसकी पत्नी का विशाल शरीर फूला हुआ जैसा मानों वह एक लाश है। उस शरीर को देखकर चित्तहत्थ को विचार आया, "अरे ! यह जीवन तो सचमुच दुःखमय है। क्या मैं इसी स्त्री के मोह के कारण भिक्षु नहीं रह पाया और कई बार भिक्षु बना पर बार-बार संघ को छोड़कर इसके पास घर चला आया? इस स्त्री का शरीर भी अनित्य है, दुःखपूर्ण है। "ऐसा सोचकर उसने तुरंत अपना चीवर लिया और सातवीं बार प्रव्रजित होने के लिए चल पड़ा।
पूरे मार्ग चित्तहस्त "संसार के दुःखमय स्वरूप और अनित्यता पर चिंतन करता रहा। विहार पहुँचते-पहुँचते उसने सोतापन्न स्थिति प्राप्त कर ली।वहाँ पहुँचकर एक बार पुनः उसने भिक्षुओं से प्रव्रज्या देने के लिए आग्रह किया। इस बार भिक्षुओं ने उसे साफ़ मना कर कहा, “तुम प्रव्रज्या का महत्व नहीं समझते हो। तुम्हारा चेहरा सड़क पर पड़े पत्थर की भाँति है जो बार-बार रगड़ खाता है पर उस पर कोई असर नहीं होता। तुम अब अपनी इसी आदत के कारण बार बार आते जाते रहते हो इसलिए अबकी बार हम तुम्हें प्रव्रजित नहीं कर सकेंगे" 

चित्तहत्थ ने गिड़गिड़ाते हुए पुनः प्रार्थना की और कहा "भन्ते! एक बार, अंतिम बार, कृपा कीजिए। मुझे प्रव्रज्या दीजिए। "भिक्षुओं ने उसके पिछले उपकारों को यादकर उसे पुनः प्रव्रज्या दे दी और कुछ ही दिनों में वह अर्हत भी हो गया।

एक दिन कुछ भिक्षुओं ने मजाक में चित्तहस्त से कहा, "क्या बात है चित्तहस्त ? बहुत दिन हो गए तुम यहीं हो। इस बार तुम गृहस्थ बनने में बहुत देर कर रहे हो।" तब चित्तहस्त ने उन्हें बताया, "संसार में आसक्ति रहने के कारण मैं अभी तक बार-बार घर जाता रहा। पर अब उस घर से मेरी आसक्ति नहीं रह गई है। अतः अब मैं नहीं जाता" भिक्षुओं को लगा कि चित्तहस्त झूठ बोल रहा है। अतः वे उसे भगवान बुद्ध के पास ले गए और वहाँ जाकर तथागत को पूरी बात बताई।तब भगवान बुद्ध ने उन्हें बताया कि चित्तहस्त सच बोल रहा है।पहले उसका चित्त स्थिर नहीं था इसीलिए वह बार-बार आना-जाना किया करता था, पर अब अहत्व प्राप्तकर उसका चित्त स्थिर हो गया है। अतः अब उसे बार-बार आने-जाने की जरूरत नहीं रह गई है।


Comments

Popular posts from this blog

74 years of stigma removed in just 30 minutes*

Remembering Sir Ratan Tata: A Legacy of Leadership and Philanthropy

Report on Corporate Finance in India