चित्त मुक्ति के लिए जल बिन मछली के सम्मान तड़पता है: भिक्षु मेघिय की कथा (भाग -2)
तथागत बुद्ध से मनोरम उद्यान में जाकर ध्यान करने की अनुमति पाकर भिक्षु मेघिय बहुत खुश हुआ, क्योंकि उसकी इच्छा पूरी हो गई।वह तुरंत विहार से निकला और जल्द ही उस मनोरम आम्रवाटिका में पहुँच गया और एक वृक्ष के नीचे आसन लगाकर ध्यान-साधना में बैठ गया। मगर यह क्या! उसका मन ध्यान-साधना लगता ही ना था बल्कि भिक्षु का मन बहुत ज़ोरों से इधर-उधर भटकने लगा। भिक्षु मेघीय, अपने मन को शांत करके केन्द्रित करने में सफल नहीं हुआ। पूरा दिन इसी आन्तरिक द्वंद्व में बीत गया मगर उसका मन शांत नहीं हुआ। शाम होने पर वह बौद्ध-विहार वापस आया और भगवान बुद्ध के सम्मुख प्रकट होकर और उन्हें बताया कि किस तरह वह पूरे दिन अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहा मगर अंत तक पूर्णतः असफल रहा।
तब शाक्य-मुनि ने उसे समझाया, “मेघिय! वहाँ जाकर तुमने बहुत ही गलत काम किया था। मैं तुम्हें कहता रहा कि अभी उस उद्यान में मत जाओ, पर तुमने मेरी बात नहीं मानी। तुम्हारा मन इसीलिए एकाग्र नहीं हो सका क्योंकि वह उद्यान के राग से लिप्त हो गया था। “भिक्षु को इतना कमजोर नहीं होना चाहिए कि वह सदैव अपने चित्त के ही वश में रहे बल्कि उसे तो अपने चित्त को अपने वश में रखना चाहिए”
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