निःस्वर्थ सेवा का भाव।

ब्रह्म-विहार की सबसे कठिन उपलब्धि है —समता। इसे पाली में उपेक्खा (हिन्दी में उपेक्षा) भी कहते हैं, इसका मौलिक अर्थ अनासक्ति है, तटस्थता है। बिना राग-द्वेष, बिना लाग-लपेट के निष्पक्ष रूप से देखना है।

जैसे कमल कीचड़ में से उत्पन्न होकर भी पानी या कीचड़ से अछूता ही रहता है - उपेक्खा वाला व्यक्ति उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है। 

वर्तमान हिंदी में उपेक्षा शब्द का प्रयोग, इस अनासक्ति अथवा तटस्थता का द्योतक नहीं रहा, बल्कि उसमें परित्यक्तता का भाव छिपा हुआ है तथा उसे उदासीनता, तिरस्कार, अनादर के अर्थ में ही लिया जाता है। वस्तुतः उपेक्खा - अन्यमनस्कता या उदासीनता नहीं है। यह चट्टानी जड़ता या फिर मरघट की शांति भी नहीं है। समता नकारात्मक नहीं है; मूढ़ता, मूर्छा, कुंठा नहीं है। सामान्यतः उपेक्षा में आप अलग रहते हैं। तटस्थ रह कर जो कुछ हो रहा है। उसके प्रति अन्यमनस्क रहते हैं। उसमें आपको कोई मतलब या सरोकार नहीं है। आप उस घटना, अवस्था या स्थिति की ओर ध्यान भी नहीं देते। परंतु ‘उपेक्खा' में यह बात नहीं है। 

गीता में वर्णित “स्थितप्रज्ञ व्यक्ति” उपेक्खा वाला ही है। संसार की उथल-पुथल, हानि-लाभ, सुख-दुख, मान-अपमान और सम्मान द्वारा जीवन में आते उतार-चढ़ाव, जवार-भाटे, वर्षा-आतप आदि द्वंद्वों से समता-प्राप्त विपश्यी मानव का मन विचलित नहीं होता। वह सारी स्थितियों में उसने समता-भाव अथवा उपेक्खा में रहता है। उपेक्खा की शक्ति प्राप्त होने पर व्यक्ति परम धीर और सहिष्णु हो जाता है। उसे परस्थितियों की बदलती हुई लहरों पर सहजभाव से तैरना आ जाता है। उसके मन, वाणी, शरीर के कर्मों की समता में भी तन्मयता आती है। परम सुख प्राप्त होता है। “उपेक्खा (समता) का सुख संसार के सारे सुखों से परे है, श्रेष्ठ है।" 

विपश्यी व्यक्ति, होने वाली स्थिति, घटना को सम्यक दृष्टि से देखता है, उसका यथाभूत अध्ययन करता है, पर केवल साक्षीभाव से ही। उसमें लपेटा जा कर नहीं देखता। “समता से देखना ही विशेष रूप से देखना है, प्रज्ञापूर्वक देखना है, सम्यक दृष्टि से देखना है।"

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